Sunday, June 27, 2021

 मिल्कियत सारी ये तेरी नज़र करता हूँ ,

तेरे शहर से कहीं दूर अब मैं घर करता हूँ .....  

जो उजालों के साथी थे कुछ दूर तलक आये ,

किसे मालूम अंधेरों में मैं कैसे सफ़र करता हूँ ....

तिनका तिनका बिखरा हूँ इन राहों पर,

पा जाऊं खुद को तो तुझको ख़बर करता हूँ ...

ज़िन्दगी धूप बन कर न आए तुझ पर ,

हर दुआ अपनी तेरे हिस्से में शजर करता हूँ .... 



  

  

Saturday, April 24, 2021

 इश्क़ के सब रास्ते बड़े दुश्वार निकले ,

अहल-ए -शहर जितने थे सब तेरे बीमार निकले 

अब कहाँ पहले सी होने की वो जद्दोजहद ,

हम जब भी घर से निकले तो तैयार निकले 

ये अजब फैसला हुआ हमारे हक़ में ,

ख़्वाब ही अपनी नींदों के गुनहगार निकले 

ये फूल ये तारे ये बारिश ये जुगनू ,

जितने हैं सब तेरे किरदार निकले 

Saturday, January 16, 2021

धूप और ओस

 तुम और मैं अलग थे ,

हमारा सफर,  हमारी  मज़िलें 

सब अलग थीं 

 मगर रात हुई ,

रात ने हम दोनों 

को रोक दिया 

वो अंधेरा , वो ख़ामोशी 

मेरी थी , तुम्हारी थी 

अब  फ़र्क कम था 

वो दूरी घट गई थी 

उस अँधेरे ने 

हमें बराबर कर दिया 

लगा कि हर उलझी गाँठ 

खुल गई और एक दूसरे को 

हम बेहतर समझने लगे 

मगर तभी सुबह हो गयी 

और सुबह के साथ 

तुम धूप हो गए 

मैं ओस हो गया 

बात रह गई 


Thursday, December 24, 2020

 हज़ार गुनाहों सा वो एक मंज़र था ,

 हबीब के हाथ में जो खंजर था.... 

दरिया अपनी रवानी खो महफूज़ था ,

रात अकेला जो रह गया समंदर था  ..... 

न जाने उससे मुलाक़ात हुई कि नहीं ,

कौन बाहर था कि कौन अंदर था ... 

माटी ने आखिर सबको बराबर तोला ,

कल ये कलंदर, कल वो सिकंदर था 

Wednesday, September 23, 2020

यूँ तो भीड़ में बाज़ारों के, दुकानों के हैं ,
हम अकेले में किताबों के ,मैखानों के हैं 

ये खुशबु, ये तारे, ये बारिश, ये जुगनू ,
सब किरदार ये अपने फ़सानों के हैं 

गुज़र जाते हो तुम जिनसे किनारा करके,
खून के ये धब्बे किसानों के हैं 

खामोश रातों में जो सोने नहीं देते ,
अज़ल से शोर दिल के वीरानों के हैं 

Sunday, September 20, 2020

क्या कहिए

 किसी से यहाँ अब और क्या कहिए 

न कहिए कुछ तो बस भला कहिए ..... 

जो अब्र -ए -ग़म बरस जाए आँखों से,

सिवा उसके और किसको दवा कहिए  .... 

गुज़र चुके सब्र के सब इम्तेहान हम पर ,

अब बेवफ़ा कहिए कि बावफ़ा कहिए  .... 

इस आग की ज़द में कितने घर आए ,

किस किस पे गुज़रा ये सानेहा कहिए  .... 

बचपन के वो शजर आते हैं ख्वाब में,

क्या हुए हम कि और किसको सज़ा कहिए  .... 

कब दूर था यूँ तो मक़ाम-ए -अर्श हमसे ,

वो ज़ब्त था कि बस शुक्र-ए-खुदा कहिए .....  






Thursday, July 16, 2020

यही गुफ़्तगू रहती है कभी धूप से कभी छाँव से,
दूर बहुत आ गए हैं हम अपने गाँव से ,

तेरी यादों के साथ भी ये सफर कटता नहीं
न थकन ही जाती है न छाले पाँव से 

 मिल्कियत सारी ये तेरी नज़र करता हूँ , तेरे शहर से कहीं दूर अब मैं घर करता हूँ .....   जो उजालों के साथी थे कुछ दूर तलक आये , किसे मालूम अंधे...